रविवार, 28 मई 2017

केदारनाथ यात्रा: तीसरा दिन - गौरीकुंड से केदारनाथ

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2 मई, दिन मंगलवार 
सुबह छहः बजे से पहले ही मेरी आंख खुल गयी। आंख क्या खुली बल्कि रात भर ठीक से नींद ही नहीं आयी थी। मेरे बराबर में विकास तो दूसरी ओर मोनू के बगल में "पंडत" रात भर जम के खर्रांटे मारते रहे थे। मेरे साथ ये एक दिक्कत है कि अगर बगल में कोई खर्रांटे ले रहा हो तो मुझे नींद नही आती। और मुझे क्या शायद किसी को भी नहीं आती होगी। सुबह मेरे बाद मोनू उठा। उसका भी कुछ मेरे जैसा ही हाल था। फिर "पंडत" और विकास को जगाया गया। जब उन दोनों को उनके खर्रांटों के बारे में बताया तो पट्ठे मानने को तैयार नही कि वो खर्रांटे ले रहे थे, बोले कि यार हमें नी पता। खैर सबसे पहले मैं ही रजाई से बाहर निकला और फ्रैश होकर बाहर छत पर आ गया। रात को ये होटल यात्रियों से पूरा भर गया था मगर अब कुछ लोग हमारे जागने से पहले ही केदारनाथ के लिए कूच कर चुके थे। मैं बस बाहर टहल ही रहा था कि मैंने देखा कुछ लोग नीचे कहीं से नहाकर आ रहे हैं। उनसे पूछा तो पता चला कि तप्त कुंड के पास एक-दो पाइप से गर्म पानी आ रहा है। हाँलाकि मैं नहाने के मामले में थोडा कंजूस हूँ और यहाँ तो वैसे भी अच्छी ठंड थी। मगर मैं दो दिन से नहाया नही था और आगे भी एक दो दिन नहाने का कोई मतलब नही था। इसलिए मैं तुरंत अंदर आया और अपने साथियों को अपने इस साहसी विचार से अवगत कराया। लेकिन उन तीनों में से कोई भी नहाने के मूड में नही था। मैंने बोला कोई नी, तुम लोग जल्दी तैयार हो लो तब तक मैं नहा के आता हूँ, फिर जल्दी से निकलेंगे। तप्त कुंड के पास दो जगह पाइप में से गर्म पानी आ रहा था। पानी अच्छा खासा गर्म था, गात सा खुल गया नहाकर ! नाश्ते में एक-एक आलू का परांठा चाय के साथ निपटाकर करीब पौने आठ बजे हमनें अपनी केदारनाथ पैदल यात्रा शुरू कर दी। अभी तक डोली यहाँ से नही चली थी।

गौरीकुंड से केदारनाथ का पैदल ट्रैक करीब सोलह किलोमीटर का है और पूरा रास्ता पैदल चलने लायक पक्का बना हुआ है। 2013 से पहले ये रास्ता चौदह किलोमीटर का था और मंदाकिनी के बांयी ओर से जाता था। गौरीकुंड से केदारनाथ के आधे रास्ते में यानी सात किलोमीटर पर रामबाडा आता था जो इस पैदल यात्रा का सबसे मुख्य पडाव था। 2013 की त्रासदी में रामबाडा पूरी तरह से तबाह हो गया तो प्रशासन ने 2014 में एक नया रास्ता बनाया जो रामबाडा से थोडा पहले मंदाकिनी पार करके नदी के दांयी ओर वाली पहाडी के उपर से होता हुआ जाता है और 2014 के बाद से केदारनाथ का मुख्य रूट है।

गौरीकुंड - भीमबली - छोटी लिंचोली - लिंचोली - छानी केम्प - रुद्रा प्वाइंट - बेस केम्प - केदारनाथ

यात्रा के शुरुआती दिनों में ही बहुत ज्यादा भीड दिखायी दे रही थी। पूरे रास्ते पर यात्री ही यात्री दिखाई पड रहे थे।अधिकतर लोग पैदल थे तो काफी लोग खच्चरों पर और कोई-कोई कंडी में भी जाता दिख रहा था। शुरू में हम चारों साथ - साथ चल रहे थे। मगर जल्द ही एक साथ चलना मुश्किल होने लगा। जहाँ मोनू सबसे तेज चल रहा था वहीं "पंडत" सबसे पीछे था। बार-बार मोनू हमें तेज चलने को बोलता मगर हम सब अपनी - अपनी चाल से ही चल सकते थे। और सही भी यही था। एक-दो किलोमीटर के बाद ही हम सबको ये कहानी समझ में आ गयी। तभी तो मोनू सबसे आगे चला गया और हम तीनों अपनी-अपनी स्पीड से चलने लगे। रास्ते में बहुत से साधू लोग मिले इनमें से एक साधू डमरू बजाते हुए चल रहे थे, उनके पास खडे होकर फोटो खिंचाया। हम लोगों ने अपना टारगेट बनाया की छह किलोमीटर दूर भीमबली में ही पहला स्टॉप लेंगे और वहां 15-20 मिनट रुक कर चलेंगे। भीमबली तक का पूरा रास्ता हल्की - हल्की चढाई वाला ही है। आराम से चलते हुए भी करीब सवा दो घंटे में हम भीमबली पहुंच गये।

भीमबली की समुद्र तल से उंचाई 2670 मीटर है। मोनू हमें यहाँ नही मिला, न जाने वो यहाँ रुका भी था या नही। भीमबली में 10-15 मिनट का ब्रेक लेकर हम लोग आगे निकल गये।  रामबाडा से थोडा पहले दो जगहों पर रास्ता मंदाकिनी नदी को पार कर रहा था। पहले वाले पुल से जाने वाला रास्ता थोडा लम्बा था जबकि दूसरे पुल वाला रास्ता थोडा छोटा था मगर उस पर तेज चढाई थी। हमने छोटे रास्ते से जाने का विचार किया। पुल पर दो-चार फोटो खींचकर चढाई वाले रास्ते पर मैंने अपने कदम बढा दिये। विकास और "पंडत" पुल पर थोडा और आराम करना चाहते थे जबकि मोनू कब का आगे निकल चुका था। यहाँ से छोटा लिंचोली करीब डेढ-पौने दो किलोमीटर है और वहां तक चढाई वाला रास्ता है। अब मुझे भूख भी लगने लगी थी। अपनी चाल से चलता हुआ करीब ग्यारह बजे तक मैं छोटी लिंचोली पहुंच गया। यहाँ दूर से ही एक चबूतरे पर मुझे मोनू बैठा दिख गया। भूख जोरों पर थी जाते ही बिस्किट और कोल्ड-ड्रिंक ले ली गयी। 10-15 मिनट के बाद "पंडत" और विकास भी आ गये। जब हम चारों यहाँ बैठकर खा पी रहे थे तब जाकर केदारबाबा की डोली नीचे से आयी। थोडी देर यहाँ रुककर डोली आगे निकल गयी जबकि हम थोडा और रुककर चले।

करीब पौने बारह बज रहे थे जब हम छोटी लिनचोली से चले। यहाँ से लिनचोली करीब ढाई किलोमीटर जबकि केदारनाथ साढे सात किलोमीटर है। विकास और मोनू ने अपना सामान एक ही बैग में रख रखा था जिसे गौरीकुंड से यहाँ तक मोनू लेकर आया था। अब उस बैग को ढोने की बारी विकास की थी जबकि मैं और "पंडत" अपना-अपना बैग लिए हुए थे। छोटी लिनचोली से निकलते ही मैं और मोनू आगे निकल गये। विकास और "पंडत" को बोल दिया कि आगे कहीं किसी पडाव पर हम उनको मिलेंगे। एक बजे के करीब लिनचोली पहुंचे। ज्यादा देर यहाँ रुके नही। एक किलोमीटर आगे छानी कैम्प में रुके। एक दुकान पर चाय मैगी का ऑर्डर दे दिया। और दुकान के बाहर आकर बैठ गये ताकि विकास और "पंडत" आयें तो हम उन्हे यहीं रोक लें। हमनें अपनी मैगी और चाय निपटा ली तब जाकर विकास और "पंडत" यहाँ पहुंचे। उन दोनो के लिए चाय - मैगी का ऑर्डर देकर मैं और मोनू आगे के लिए निकल लिये ताकि हम जल्दी पहुंचकर आज के रहने खाने का कुछ इंतजाम कर सकें।

छानी कैम्प के बाद जगह-जगह पानी के रास्तों में बर्फ मिलने लगी। एक जगह तो अभी भी मजदूर बरफ हटाकर रास्ता बना रहे थे। छानी कैम्प से रुद्रा प्वाइंट और आगे केदारनाथ बेस कैम्प तक का रास्ता चढाई भरा है। जैसे - जैसे हम आगे बढते जा रहे थे, बर्फ से ढंके पहाड हमारे और करीब आ रहे थे। आंखिर की एक किलोमीटर वाली चढाई काफी कठिन थी मगर फिर भी धीरे-2 हम बेस कैम्प तक पहुंच ही गये। यहाँ के बाद केदारनाथ लगभग एक किलोमीटर रह जाता है और रास्ता भी सीधा ही है। खच्चर सिर्फ बेस कैम्प तक ही आते हैं। इसके बाद सभी को केदारनाथ तक पैदल ही जाना होता है। इन खच्चरों ने रास्ते भर बडा परेशान किया था, वो तो भला हो "सुलभ" वालों का जो पूरे रास्ते पर सफाई कर रहे थे नही तो पूरा रास्ता इन खच्चरों की लीद से पट जाता। अब कम से कम कल तक के लिए इन खच्चरों से पीछा छूटा। बेस कैम्प से केदारनाथ सामने ही दिखता है, ये देखकर हमारी थकान कुछ मिट सी गयी। अब हल्की-हल्की बूंदा बांदी भी होने लगी थी मगर फिर भी हम लोग रुके नही और शाम के चार बजने से पहले ही केदारनाथ पहुंच गये। यहाँ पहुंचते ही हमारा सबसे पहला काम था रहने के लिए जगह ढूंढना जिसके लिए हमें बहुत ज्यादा मेहनत नही करनी पडी। केदारनाथ मंदिर से करीब 150-200 मीटर पहले ही जीएमवीएन वालों ने एक पूरी टेंट कॉलोनी बसा रखी थी। एक टेंट में 10 आदमियों के रुकने की व्यवस्था थी और किराया था 250 रुपये प्रति व्यक्ति जो शायद थोडा ज्यादा था। मगर ज्यादा ऑप्शन ना होने की वजह से एक टेंट में चार लोगों के हिसाब से पर्ची कटाई गयी और जा पटका अपना बैग।

करीब 20-25 मिनट के बाद "पंडत" और विकास आते हुए दिखे, उनके लिए मैं और मोनू पहले ही टेंट के बाहर आ गये थे। हम चारों जैसे ही अपने आज के आशियाने में पहुंचे तो सबसे पहला काम जूते निकालकर स्लीपिंग बैग में घुसने का ही किया गया। हाँलाकि अभी दिन छिपनें में काफी समय था मगर बाहर बादल होने की वजह से मौसम में बेहद ठंड थी उपर से हमारे शरीर में आया पसीना सूख रहा था तो और भी ज्यादा ठंड लग रही थी। स्लीपिंग बैग में घुसने के भी करीब 15-20 मिनट बाद ठंड दूर हुई। आंखिर आज अपनी 16 किलोमीटर की पैदल यात्रा 8 घंटे में पूरी करके हम समुद्र तल से करीब 3500 मीटर की उंचाई पर स्थित इस केदारनगरी में पहुंच गये। सभी को हल्के सर दर्द की शिकायत सी  महसूस हो रही थी जो शायद हाई एल्टिट्यूड का असर था। अब करना तो कुछ था नही तो बस अंधेरा होने तक पडे रहे टेंट में ही। दो-तीन घंटे बाद करीब साढे सात बजे बाहर थोडा बहुत टहलकर और हल्का-फुल्का डिनर कर के हम लोग फिर से अपने टेंट में सोने के लिए चले गये। आज का दिन पूरा हुआ बस अब सुबह भोले बाबा के दर्शन करने की बारी थी।

मंदाकिनी और गौरीकुंड से पैदल यात्रा की शुरूआत

इस फोटो में जो सबसे पीछे भीड सी दिख रही है, वहीं गौरीकुंड का अंतिम छोर है जहाँ से केदारनाथ की पैदल यात्रा शुरू हो रही है।

मोनू और विकास

बम बम भोले - ये डमरू वाले साधू जी डमरू बजाते और भोलेनाथ का जयकारा करते चल रहे थे। "पंडत" आशीर्वाद ले रहा है।

अब चौधरी साब की बारी आशीर्वाद लेने की

भीमबली से करीब एक -डेढ किलोमीटर पहले मिला एक झरना

लो जी, भीमबली में वाइ-फाइ जोन भी है। इसे कहते हैं हाइटेक जमाने की केदारनाथ यात्रा !!

भीमबली से दूरियां
क्या कहेंगे विकास के इस पोज को!!

"पंडत" अब थोडा ठीक सा लग रहा है। शुरू के चार-पांच किलोमीटर में तो ये बुरी तरह टूट लिया था।

रामबाडा से थोडा पहले मंदाकिनी पार कर दूसरी ओर जाता रास्ता। यहाँ करीब 100-150 मीटर की दूरी पर दो जगह मंदाकिनी नदी पर पुल बने हैं और उनसे होकर केदारनाथ ट्रैक नदी के दायीं ओर वाली पहाडी पर जाता है।

रामबाडा के पास मंदाकिनी पर बना पुल

यहीं पर कहीं रामबाडा था जो 2013 में पूरी तरह तबाह हो गया था।

रामबाडा के पास नदी पार करने के बाद उपर चढता रास्ता

दुख के दो साथी

बर्फ के गोले दिखाता विकास

लिंचोली के बाद मिली पहली बर्फ पर चौधरी साब

रास्ते में मिली पहली बर्फ पर मोनू

लिंचोली से दूरियां

छानी कैम्प के बाद एक जगह बर्फ हटाकर रास्ता बनाते मजदूर



मंदाकिनी के उस पार पुराना क्षतिग्रस्त केदारनाथ ट्रैक और उस पर हुआ भूस्खलन

मुस्कुरायें आप हिमालय की गोद में हैं। मगर ऐसी थकान में मुस्कुरायें कैसे भाई?!!

केदारनगरी स्थित टेंट्स
शाम के सवा चार बजे हैं। विकास और "पंडत" भी आ पहुंचे हैं केदारनगरी!
जीएमवीएन के टेंट में अपने-2 स्लीपिंग बैग में घुसे हुए

अगले दिन सुबह केदार बाबा के दर्शन के पश्चात
अगले भाग में जारी.....

मंगलवार, 16 मई 2017

केदारनाथ यात्रा: दूसरा दिन - गुप्तकाशी से त्रियुगीनारायण व गौरीकुंड

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1 मई 2017, सोमवार 
हम चार जनें मैं, विकास, मोनू और "पंडत" केदारनाथ यात्रा पर थे और कल हरिद्वार से चलकर गुप्तकाशी पहुंच गये थे। वैसे तो हमारे पास इतना समय था कि हम कल ही गौरीकुंड तक पहुंच सकते थे लेकिन फिर वहां पूरा एक दिन आराम करना पडता। इसलिए गुप्तकाशी में ही रुका गया। शायद आप सब लोग जानते ही होंगे कि दीपावली के समय जब केदारनाथ मंदिर के कपाट शीतकाल के लिए बंद होते हैं तो केदार बाबा कि "डोली" ऊखिमठ स्थित ओमकारेश्वर मंदिर में रखी जाती है और पूरे छह महीनें केदार बाबा की पूजा यहीं होती है। अगले सीजन में कपाट खुलने के समय डोली ओमकारेश्वर मंदिर से केदारनाथ जाती है। डोली के साथ-2 बहुत से पुजारी और लोकल लोग भी होते हैं। केदारनाथ मंदिर में उस साल पूजा करने वाले मुख्य पुजारी जिनको "रावल जी" कहा जाता है, भी डोली के साथ-2 एक दूल्हे की तरह सजकर घोडे पर चलते हैं। साथ ही 5-6 आर्मी के जवान बैगपाइपर बजाते हुए व कुछ लोग ढोल आदि बजाते हुए चलते हैं। कपाट खुलने के तीन -चार दिन पहले ही डोली ऊखिमठ से चल देती है और रास्ते में पडनें वाले हर गांव, हर कस्बे में डोली रुकती जाती है। सब गांव-कस्बे वाले केदारनाथ भगवान के दर्शन करते हैं और "रावल जी" से आर्शीर्वाद लेते हैं। केदारनाथ मंदिर के कपाट खुलते और बंद होते समय के इन तीन-चार दिनों में पूरे इलाके में उत्सव जैसा माहौल होता है। पूरी केदार घाटी इन दिनों शिवमय हो जाती है। 

हमें कल गुप्तकाशी में पता चल गया था कि "बाबा की डोली" कल ही ऊखिमठ से चली है और आज शाम तक गौरीकुंड पहुंचेगी। आज जब हम त्रियुगीनारायण और गौरीकुंड तक जायेंगे तब रास्ते में हमें कहीं "डोली" जरूर मिलेगी। वैसे भी आज हमें केवल 40-50 किलोमीटर ही जाना है तो कुछ देर तक हम भी "डोली" के साथ ही चलेंगे। इसलिए आज आराम से 7 बजे सोकर उठे, फ्रैश होकर और नाश्ता-पानी करके करीब साढे आठ बजे हम लोग अपनी आज की यात्रा पर निकलने के लिए तैयार हो गये। आज हमें सबसे पहले त्रियुगीनारायण जाना है। गौरीकुंड से करीब 30 किलोमीटर दूर सोनप्रयाग आता है। सोनप्रयाग में मुख्य बस अड्डे से काफी पहले ही उल्टे हाथ को एक रास्ता त्रियुगीनारायण के लिए जाता है जो यहाँ से 13 किलोमीटर दूर है। सोनप्रयाग से त्रियुगीनारायण के लिए एक पैदल रास्ता भी जाता है जो करीब 6-7 किलोमीटर लम्बा है और पूरा रास्ता चढाई भरा है। अरे हाँ ! एक और बात तो भूल ही गया, विकास और "पंडत" सिर्फ चप्पल पहनकर ही आ गये थे। शायद मोनू ने उन्हे ठीक से बताया नही था कि केदारनाथ की यात्रा में 17 किलोमीटर पैदल चलना पडता है और उपर ठंड भी बहुत ज्यादा होगी। शायद बर्फ भी मिले। इन सबके लिए जूते होनें चाहियें इसलिए गुप्तकाशी से निकलने से पहले विकास और "पंडत" ने जूते खरीदे।

करीब नौ ही बज गये हमें गुप्तकाशी से निकलते - निकलते। गुप्तकाशी से सोनप्रयाग के आधे रास्ते में यानी करीब 15 किलोमीटर दूर फाटा आता है। फाटा में केदारनाथ की हेलीकॉप्टर यात्रा के लिए हैलीपैड बना है। बडे पैसे वाले लोग जो पैदल या खच्चर पर नही चल सकते, जिनको कम समय में केदार बाबा के दर्शन करने होते हैं वो लोग यहाँ से हैलीकॉप्टर सेवा का उपयोग करते हैं। फाटा से हैलीकॉप्टर द्वारा केदारनाथ आने - जाने का एक आदमी का किराया शायद 7-8 हजार रुपये लगता है। फाटा से थोडा ही पहले एक गांव के पास हमें "केदार बाबा की डोली" जाती हुई मिल गयी। कितना अच्छा था वो नजारा ! बयां करना मुशकिल है। पूरा उत्सव जैसा माहौल, लोग ढोल-नग़ाडों पर भोले की धुन में मग्न थे। "डोली" के साथ-साथ कई सौ लोग चल रहे थे। आर्मी वालों का एक ट्रक भी था। गांव तक हम भी "डोली" के साथ-साथ चले। अलग ही अनुभव हो रहा था। गांव के किसी नौटियाल सदन के पास गांव वालों के दर्शन के लिए "डोली" रख दी गयी। सब लोग दर्शन कर रहे थे, "रावल जी" का आर्शीवाद ले रहे थे। गांववाले सभी को पानी - चाय पिला रहे थे। हम लोगों ने भी दर्शन किए, अर्शीवाद लिया। थोडी देर यहाँ रुककर हम लोग आगे निकल गये। आंखिर अभी हमें त्रियुगीनारायण जाना था।

फाटा से थोडा आगे एक ढाबे पर हम लोग मैगी और चाय के लिए रुके। यहाँ दूरदर्शन वाले एक रिपोर्टर "अनुपम मिश्र" जी लोकल लोगों के साथ कोई न्यूज कवर कर रहे थे। दरअसल कपाट खुलने के समय तीन तारीख को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी केदारनाथ आने वाले हैं। उसी के लिए आज से ही सरकारी न्यूज चैनल वाले काम पर लग गये हैं। जब तक मैगी बनेगी हम लोग भी लाइव न्यूज बनती देखने के लिए चले गये। "मिश्र" जी लोगों से पूछ रहे थे कि मोदी जी केदारनाथ में पूजा करने आ रहे हैं, आप लोगों की क्या उम्मीदें हैं। यहाँ मौजूद लोगों ने बताया कि केदार घाटी वाले पिछले कई दशकों से केदारनाथ तक सडक बनाने का मुद्दा उठा रहे हैं। लोगों ने कई एप्लिकेशन की कॉपियां भी मिश्र साहब को दिखायी जो उन्होंने विभिन्न नेताओं, मंत्रियों को भेजी थी। मगर अभी तक कुछ नहीं हुआ। लोगों ने आगे कहा कि हम मोदी जी से अपील करते हैं कि वो हमारी इस याचना पर ध्यान दें ताकि ज्यादा से ज्यादा पर्यटक यहाँ आ सकें, केदार घाटी की तरक्की हो सके और हमारा भी कुछ भला हो सके। इसी बीच ढाबे वाले ने मैगी, चाय तैयार कर दी और हम लाइव न्यूज बीच में ही छोडकर पेट-पूजा करने चले गये।

चाय मैगी खाकर हम लोग आगे बढे। सोनप्रयाग में घुसने से थोडा सा पहले ही त्रियुगीनारायण वाला तिराहा आया और हम लोग त्रियुगीनारायण के लिए मुड गये। एक छोटी सी सिंगल लेन से भी कम जगह वाली सडक है ये लेकिन नई बनी हुई है। पूरा रास्ता चढाई वाला है। कम से कम आधा किलोमीटर तक सारे रास्ते पर खच्चर ही खच्चर थे। शायद कल से ये खच्चर यात्रियों को गौरीकुंड से केदारनाथ तक लेकर जाने और वापिस लाने का अपना कार्य प्रारम्भ कर देंगे। त्रियुगीनारायण तक के तेरह किलोमीटर के रास्ते सिर्फ दो बाइक वाले मिले। शायद त्रियुगीनारायण वाले ही थे किसी काम से सोनप्रयाग या कहीं और जा रहे होंगे। करीब साढे बारह बजे थे जब हम त्रियुगीनारायण पहुंचे। त्रियुगीनारायण एक छोटा सा पहाडी गांव - शिव पार्वती का विवाह स्थल। जी हाँ ! ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव और हिमालय पुत्री माता पार्वती का विवाह यहीं हुआ था। भगवान विष्णु जी उस विवाह के साक्षी थे। इसलिए त्रियुगीनारायण मंदिर में शिव-पार्वती के साथ-साथ भगवान विष्णु की भी पूजा होती है। त्रियुगीनारायण मंदिर काफी पुराना है शायद आठवीं-दसवीं शताब्दी के आसपास का हो। मंदिर का आर्किटेक्चर ठीक वैसा ही है जैसा कि केदारनाथ और बाकी के केदारों का। गुजरात और महाराष्ट्र से आये दो परिवार यहाँ पूजा कर रहे थे। मंदिर के गर्भ गृह के सामने के बरामदे में एक बडा सा हवन कुंड बना हुआ है। कहते हैं यहां पर आज भी अग्नि कुंड के साथ अखण्ड ज्योति, धर्म शिला मौजूद है। शादी के दौरान देवताओं ने विभिन्न शक्तियों से वेदी में विवाह अग्नि पैदा की थी, जिसे धंनजय नाम दिया गया। यह अग्नि आज भी निरंतर जल रही है। इस अग्नि की राख को आज भी लोग अपने घरों में ले जाते हैं, जिसे शुभ माना जाता है। मंदिर के पुजारीगण लोगों को 50-50 रुपये में लकडी दे रहे थे अग्नि कुंड में आहुति के रुप में डालने के लिए। जब हम लोग पहुंचे तो हमें भी लकडी ऑफर की गई मगर हमनें मना कर दिया। पुजारीगणों ने हवन में लकडी डालने की बडी महत्ता बताई। मगर हम कहाँ झांसे में आने वाले थे। आंखिर में हमें वो ही लकडी बीस रुपये में ऑफर की गयी मगर मेरे ये कहने पर कि भाई जी हम तो यहाँ इतनी दूर बस भोले बाबा के दर्शन के लिए आए हैं आप बाकी लोगों से ही पैसे कमा लें। वो पुजारी मुस्कुराये और हम लोगो के वापिस आते समय बकायदा हमसे हाथ भी मिलाया।

त्रियुगीनारायण में दर्शन कर के हम लोग पास वाली दुकान पर जहाँ हमारी स्कूटी खडी थी, चाय पीने के लिए चले गये। मैंने चाय वाले से पूछा, "भाई जी यहाँ से एक रास्ता पंवालीकांठा (घुटटू), खटलिंग ग्लेशियर के लिए भी तो जाता है। वो कहाँ से है?" चाय वाले ने बताया कि ये सामने वाला पहाड देख रहे हो, मंदिर के थोडा सा पहले से ही एक रास्ता उस पहाड के उपर से उस पार पंवालीकांठा के लिए जाता है। पंवालीकांठा की गिनती भारत के सुंदरतम बुग्यालों में होती है। चाय पीकर हम लोग त्रियुगीनारायण से निकल लिए। करीब ढाई-तीन बजे हम गौरीकुंड पहुंचे। मुख्य पार्किंग स्थल के पास ही एक कार के बगल में अपनी स्कूटियां खडी की और किसी होटल-लॉज में कमरा देखने के लिए निकल लिये। चार बिस्तरों का एक कमरा 800 रुपये में आसानी से मिल गया। थोडा आराम करके हम लोग हल्का-फुल्का कुछ खानें और गौरीकुंड का मुआयना करने निकल गये। पहले गौरी देवी मंदिर गये। गौरा मंदिर की आसपास का पूरा इलाका 2013 मे आयी आपदा में तबाह हो गया था। यहाँ स्थित गर्म कुंड, तप्त कुंड, एक आश्रम और निचले हिस्से में बसे न जानें कितनें होटल बह गये थे, तबाह हो गये थे।

सवा चार बजे के करीब केदार बाबा की डोली गौरीकुंड पहुंची। डोली को गौरी माता के मंदिर में रखा गया। यहाँ भी बाबा के दर्शन के लिए लोगों की भीड लग गयी। आज रात भोले बाबा भी यहीं गौरीकुंड में आराम करेंगे और "जाट बाबा" भी! शाम के समय हमनें मार्किट से अगले दिन काम आने वाली चीजें जैसे लट्ठ, पन्नी वाला रेन कवर - विकास के अनुसार "मोर्चरी वाली पन्नी" खरीदी। रात में डिनर के बाद कल के बारे प्लानिंग की - डोली सुबह आठ बजे चलेगी, बाकी सबने डोली के साथ-2 उपर चलने की इच्छा जाहिर की। मगर मैंने कहा कि भाई वो सारे लोग पहाडी हैं, हमसे कहीं ज्यादा तेज चलेंगे वो लोग। हमें उनसे पहले निकलना होगा। वैसे भी मेरे अलावा बाकी तीनों में से किसी को भी ट्रैकिंग का अनुभव नहीं था और मुझे भी थोडा बहुत ही अनुभव था। सुबह सात बजे तक निकलने का प्लान करके हम लोग सो गये।

जय बाबा केदार !!

केदारनाथ मंदिर के इस साल के मुख्य पुजारी "रावल जी" से आर्शीवाद गृहण करते हुए। 2013 में जब केदारनाथ में आपदा आयी थी उस साल भी ये ही मुख्य पुजारी थे। पुजारी जी कर्नाटक के रहने वाले हैं और लिंगायत ब्राह्मण हैं। जैसा कि रिवाज है लिंगायत ब्राह्मण ही केदारनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी का कार्यभार सम्भालते हैं और यहाँ के रहनवासी इन्हे "रावल जी" के नाम से पुकारते हैं।

ये पुजारी जी ही उखिमठ से गौरीकुंड तक बाबा की सेवा में लगे थे। रास्ते में पडने वाले गांवों के लोगों को ये ही जौं वगरह दे रहे थे बाबा को अर्पण करने के लिए। इनके बारे में कुछ ज्यादा जानकारी एकत्रित नहीं कर सका।

मोनू  दर्शन करते हुए - इस बार मुंह बंद है !!

अब विकास की बारी

हर हर महादेव

और आंखिर में "पंडत"
यहाँ चाय और मैगी खायी गयी थी।

डीडी न्यूज  की वैन। पास में ही कहीं "अनुपम मिश्र" जी न्यूज कवर कर रहे हैं।
त्रियुगीनारायण वाले तिराहे के पास


त्रियुगीनारायण के रास्ते में - मैं और मोनू थोडा आगे निकल गये थे। एक अच्छी सी फोटोजेनिक जगह देखकर हम लोग रुक गये और....और क्या? फोटो सेशन शुरु


"पंडत"और विकास आ गये हैं। इतनी देर से क्युं आये बे?!


पास में ही ये जगह थी। गोविंद बैंड - ओम नमः शिवाय

त्रियुगीनारायण गांव में घुसते ही लगा मिला एक सूचना बोर्ड। लिखा है तोसी पांच किलोमीटर। शायद त्रियुगीनारायण से आगे कोई गांव है और ये सडक वहीं तक जाती है।

त्रियुगीनारायण मंदिर - शिव पार्वती का विवाह स्थल

अखंड ज्योति अग्नि कुंड - इसी अग्नि कुंड में लकडी डालने कर आहुति देने का रेट 50 रुपये है।

सोनप्रयाग से त्रियुगीनारायण के रास्ते में भी एक जगह हैलीपैड बना है। वापस आते समय हम यहाँ कुछ देर रुके थे।

हैलीपैड से दिखता सोनप्रयाग के आसपास का इलाका

गौरीकुंड में माता गौरी के मंदिर में "टकलों" की टोली - पता नही यहाँ भी लोग बाल अर्पण करते हैं क्या? शायद नहीं। गौरी देवी मंदिर के पास ही बायीं ओर थोडा आगे कहीं गर्म कुंड था, मंदिर के आसपास भी काफी होटल वगरह थे जो 2013 की त्रासदी में तबाह हो गये थे।

केदारबाबा की डोली गौरी देवी मंदिर में रखी जा रही है।
शाम के समय होटल की छत पर कोई साधुओं का जमावडा। 56 साधुओं को जिमाया गया था यहाँ एक साथ।
गौरीकुंड से केदारनाथ तक की यात्रा अगले भाग में जारी..